हठप्रदीपिका और हठयोग को एक दूसरे का पर्यायवाची कहा जाये, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी । हठयोग की कोई भी चर्चा बिना हठप्रदीपिका के पूर्ण नहीं होती । यौगिक ग्रन्थों में इसका स्थान अतुल्यनीय है ।हठयोग के इस अनुपम ग्रन्थ के रचयिता स्वामी स्वात्माराम हैं । हठप्रदीपिका ग्रन्थ के रचनाकार स्वामी स्वात्माराम हैं । स्वामी स्वात्माराम की गणना हठयोग के प्रसिद्ध आचार्यों में की जाती है ।अत्यन्त गूढ़ व केवल ऋषियों के योग्य समझे जाने वाले हठयोग के इस ज्ञान को सर्व सुलभ करवाने का श्रेय भी स्वामी स्वात्माराम को ही जाता है। इनकी अत्यन्त सरल व सारगर्भित भाषा शैली को इस अनुपम रचना(हठप्रदीपिका) में पढ़ पायेंगे ।वर्तमान समय में भी हठप्रदीपिका की उपयोगिता उतनी ही है, जितनी कि चौदहवीं से पन्द्रहवीं शताब्दी के मध्य थी । यदि ये कहा जाये कि वर्तमान समय में हमारे समाज को हठयोग के इस अनुपम ज्ञान की पहले से भी ज्यादा आवश्यकता है, तो ये बिल्कुल सही होगा ।
हठप्रदीपिका का काल ( समय )
हठप्रदीपिका के काल के विषय में सभी विद्वान एकमत नहीं हैं । सभी ने इसके रचनाकाल के विषय में अपने-अपने मत दिए हैं।मुख्य रूप से विद्वानों 14 वीं से 15 वीं शताब्दी के मध्यकाल को ही हठप्रदीपिका की उत्पत्ति का काल माना गया है ।
हठप्रदीपिका हठयोग साधना पद्धति का ग्रन्थ है, जिसके आदि प्रवर्तक अथवा पहले वक्ता स्वयं भगवान शिव हैं । भगवान शिव को आदिनाथ भी कहा जाता है । आदिनाथ के कारण ही इसे नाथयोग अथवा नाथ सम्प्रदाय का योग भी कहा जाता है । स्वामी स्वात्माराम स्वयं भी इसी नाथ परम्परा के अनुयायी थे । आज भी नाथ सम्प्रदाय भारत के सबसे बड़े सन्त सम्प्रदायों में से एक है । भारतवर्ष के प्रत्येक क्षेत्र में आपको नाथ सम्प्रदाय के मन्दिर और मठ बहुतायत मात्रा में देखने को मिलेंगे । इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही हठयोग परम्परा के सभी सिद्धों और आचार्यों को नमस्कार करते हुए स्वामी स्वातमाराम द्वारा उनके प्रति कृतज्ञता भी प्रकट की गई है ।
हमारे जीवन में प्रत्येक कार्य करने के पीछे कोई न कोई लक्ष्य और उद्देश्य होते ही हैं । इसी कड़ी में हठयोग साधना के लक्ष्य को बताते हुए स्वामी स्वात्माराम बताते हैं कि इस “हठयोग साधना का उपदेश केवल राजयोग की प्राप्ति के लिए किया जा रहा है” ।अर्थात् हठयोग साधना का लक्ष्य केवल राजयोग की प्राप्ति करना है ।हठयोग व राजयोग एक ही सिक्के के दो पहलु हैं । जिस प्रकार केवल एक तरफ से छपे हुए सिक्के का कोई मूल्य नहीं होता है, ठीक उसी प्रकार अकेले हठयोग या राजयोग का भी कोई मूल्य नहीं है । यहाँ पर हठयोग साधन और राजयोग साध्य है । अर्थात् हठयोग को राजयोग की प्राप्ति का माध्यम या साधन माना गया है । हठयोग साधना का पालन करके ही राजयोग को प्राप्त किया जा सकता है । इसके अतिरिक्त राजयोग को प्राप्त करने का अन्य कोई साधन नहीं है । इसलिए यह दोनों एक दूसरे पर पूर्ण रूप से आश्रित हैं ।
योग के सभी आचार्यों ने योग के भिन्न- भिन्न प्रकारों अथवा अंगों की चर्चा अपने ग्रन्थों में की है । इसी कड़ी में स्वामी स्वात्माराम ने हठप्रदीपिका के पाँच उपदेशों के माध्यम से योग के चार अंगो का वर्णन किया है । जिनका वर्णन इस प्रकार है –
आसन:- हठप्रदीपका के पहले ही उपदेश में स्वामी स्वात्माराम योग के प्रथम अंग अर्थात् आसन की चर्चा करते हुए पन्द्रह आसनों का उपदेश करते हैं । इन सभी आसनों में से सिद्धासन को सबसे श्रेष्ठ आसन माना गया है ।
कुम्भक ( प्राणायाम ) :- दूसरे उपदेश में कुम्भक की चर्चा करते हुए आठ कुम्भकों का वर्णन किया है । यहाँ पर प्राणायाम को ही कुम्भक कहकर संबोधित किया गया है । इन सभी कुम्भकों में केवल कुम्भक को सबसे श्रेष्ठ कुम्भक अथवा प्राणायाम माना गया है ।
मुद्रा :- हठप्रदीपिका के तीसरे उपदेश में योग के तीसरे अंग अर्थात् मुद्राओं का वर्णन करते हुए, कुल दस मुद्राओं की चर्चा की गई है । जिनमें खेचरी मुद्रा को सबसे श्रेष्ठ मुद्रा माना गया है ।
नादानुसंधान :- योग के अन्तिम अंग अर्थात् नादानुसंधान का वर्णन हठप्रदीपिका के चौथे उपदेश में किया गया है । नादानुसंधान की कुल चार अवस्थाएँ कही गई है । जिनमें साधक को अलग- अलग प्रकार के नाद सुनाई पड़ते हैं । निष्पत्ति अवस्था को नादानुसंधान की सबसे उत्तम अवस्था माना गया है ।
बाह्य दिखावे की आलोचना एवं कर्मयोग की महत्ता :- स्वामी स्वात्माराम ने बाहरी आडम्बरों की खुल कर आलोचना करते हुए कर्मयोग पर बल दिया है । इनका मानना है कि केवल योगियों जैसी वेशभूषा बनाने से, मात्र योग के विषय में कथा- कहानियाँ सुनने मात्र से, केवल ग्रन्थ पढ़ने से या योग के विषय में केवल बातें करने से योग में सिद्धि प्राप्त नहीं होती है । योग में सिद्धि प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले साधक को बिना आलस्य किए, निरन्तर योग का अभ्यास करना चाहिए । योग में सिद्धि प्राप्त करने का यही एकमात्र उपाय है । उपर्युक्त कथन से स्वामी स्वात्माराम कर्मयोग की अनिवार्यता पर बल देते हुए कर्मयोग को सफलता अथवा सिद्धि प्राप्त करने का आधार मानते हैं ।
क्रियाओं की गोपनीयता :- हठयोग के प्रायः सभी ग्रन्थों में योग की बहुत सारी क्रियाओं को अत्यन्त गोपनीय रखते हुए, चाहे जिसे भी इसका ज्ञान न देने की बात को प्रमुखता से कहा गया है । इसका अर्थ यह बिल्कुल भी नहीं है कि हमें इन सभी क्रियाओं को पूर्ण रूप से गुप्त रखते हुए किसी के भी सामने इनकी चर्चा नहीं करनी चाहिए । हम किसी भी बात अथवा किसी पदार्थ को मुख्य रूप से दो ही स्थितियों में गुप्त रखते हैं । या तो वह अत्यन्त दुर्लभ अथवा कीमती ( जो आसानी से प्राप्त न हो सके ) हो या फिर घोर निन्दनीय ( बहुत बुरी ) हो । इसी कड़ी में हम न ही तो अपने बहुमूल्य ख़ज़ाने के बारे में किसी से चर्चा करते हैं और न ही अपनी किसी बुराई अथवा कमजोरी की । दोनों को ही हम पूर्ण रूप से गुप्त रखने का प्रयास करते हैं । हम अपने ख़ज़ाने या कमजोरी की चर्चा अपने विश्वसनीय मित्र अथवा परिवार के किसी सदस्य के सामने ही करते हैं, अन्य किसी के सामने नहीं । ठीक इसी प्रकार हमें योग की अत्यन्त गुणकारी क्रियाओं को भी अयोग्य अथवा दुष्ट व्यक्तियों से पूर्ण रूप गुप्त रखना चाहिए और अपने विश्वसनीय या योग्य व्यक्ति को ही इसका ज्ञान प्रदान करना चाहिए ।
इन्हें गुप्त रखने के पीछे सबसे मुख्य कारण है कि ये अत्यंत प्रभावी और उत्कृष्ट साधना पद्धतियां हैं । यदि आप इन अभ्यासों की चर्चा सबके सामने करते हैं, तो इनका उपहास उड़ाया जा सकता है । अतः इनकी चर्चा अथवा जानकारी योग्य ( पात्र ) व्यक्ति को ही देनी चाहिए, क्योंकि वही इनकी उपयोगिता को अच्छी प्रकार से समझ सकता है ।
यह पूर्ण रूप से गुरु के विवेक का विषय है कि वह स्वयं इसका निर्धारण करे कि किसे इनका ज्ञान देना चाहिए और किसे नहीं । इस ज्ञान के असली पात्र को एक गुरु ही अच्छी प्रकार से जान सकता है । इसलिए इन क्रियाओं को गुप्त रखने की बात पूर्ण रूप से तार्किक और न्यायसंगत है।
अतिश्योक्ति अलंकार का प्रयोग :- प्रत्येक लेखक अथवा वक्ता की लिखने अथवा बोलने की एक विशेष शैली होती है । जिसमें वह अनेक प्रकार के अलंकारों का प्रयोग करता है । यहाँ पर स्वामी स्वात्माराम ने भी अपनी भाषा शैली में अतिशयोक्ति अलंकार का बख़ूबी से प्रयोग किया है । अतिश्योक्ति अलंकार का अर्थ है बात को बढ़ा- चढ़ाकर बताना अथवा बात को अत्यन्त रुचिकर बनाकर बताना । जिस प्रकार हम किसी अत्यन्त सुन्दर स्त्री को देखकर “चाँद सा मुखड़ा” नामक वाक्य का प्रयोग करते हैं । ये कहना भी अतिश्योक्ति अलंकार के अन्तर्गत ही आता है । वास्तव में तो किसी का मुँह चाँद जैसा होता ही नहीं है । लेकिन जो हमें बहुत ख़ूबसूरत लगता है, तो उसकी ख़ूबसूरती को दर्शाने के लिए हम इस वाक्य का प्रयोग करते हैं । ठीक इसी प्रकार ग्रन्थकार ने भी यहाँ पर बहुत बार इस अतिशयोक्ति अलंकार का प्रयोग अपने ग्रन्थ में किया है । इसके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं –
अब हम हठप्रदीपिका के सभी पाँच उपदेशों के विषयों का संक्षिप्त अवलोकन करेंगे । स्वामी स्वात्माराम ने हठप्रदीपिका के पहले चार अध्यायों में योग के एक – एक अंग की चर्चा की है और अन्तिम पाँचवें अध्याय में गलत विधि से योगाभ्यास करने पर उत्पन्न होने वाले रोगों की यौगिक चिकित्सा पद्धति का वर्णन किया है ।
प्रथम उपदेश ( पहला अध्याय )
प्रथम उपदेश में स्वामी स्वात्माराम ने सर्वप्रथम आदिनाथ शिव व उनके बाद के सभी योगियों को नमन करते हुए हठयोग विद्या का उपदेश प्रारम्भ किया है । जिनमें कुछ के नाम निम्न हैं– गुरु मत्स्येन्द्रनाथ, शाबर नाथ, आनन्द भैरव नाथ, चौरंगी नाथ, मीन नाथ, गुरु गोरक्ष नाथ, चर्पटी नाथ आदि ।
हठप्रदीपिका में योग साधना आरम्भ करने से पहले योगी के लिए उपयुक्त स्थान व देश का वर्णन किया है । योग साधना के स्थान को ‘मठिका’ अर्थात् कुटिया कहा है । हठयोगी को एकान्त स्थान में, जहाँ का राज्य अर्थात देश अनुकूल हो, धार्मिक हो, धन्य- धान्य से भरपूर हो, जहाँ किसी तरह का कोई उपद्रव न होता हो, ऐसी जगह पर साधक को एक कुटिया बनाकर रहना चाहिए । आगे उस कुटिया के बारे में बताते हुए कहा है कि उस कुटिया के चारों तरफ चार हाथ प्रमाण ( लगभग 25 फीट तक ) तक पत्थर, अग्नि व पानी आदि नहीं होना चाहिए । उसका द्वार छोटा हो, कोई छिद्र अथवा बिल न हो, जमीन समतल अर्थात ऊँची- नीची न हो, ज्यादा बड़ा स्थान न हो, गोबर से लिपा हुआ, साफ व स्वस्छ हो, कीड़े आदि से रहित, उसके बाहर मण्डप, यज्ञवेदी, कुआँ आदि से सम्पन्न होने चाहिए । साथ ही कुटिया के चारों तरफ दीवार बनी होनी चाहिए । ताकि कोई जंगली जानवर या पशु अन्दर न आ सके ।
साधक व बाधक तत्त्व
हठप्रदीपिका में योग साधना में बाधक व साधक तत्त्वों का वर्णन किया है । जिनमें से बाधक तत्त्वों का त्याग करके साधक तत्त्वों का पालन करने का उपदेश किया गया है ।
बाधक तत्त्व
स्वामी स्वात्माराम ने योग साधना में बाधा उत्पन्न करने वाले छः ( 6 ) बाधक तत्त्वों का वर्णन किया है । एक योगी साधक को बाधा पहुँचाने वाले इन सभी बाधक तत्त्वों से बचना चाहिए । निम्न तत्त्वों को बाधक तत्त्वों के रूप में माना गया है-
योग साधना में सफलता प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले साधक को चाहिए कि बाधा उत्पन्न करने वाले इन सभी तत्त्वों को अपने व्यवहार से सर्वथा दूर रखें ।
साधक तत्त्व
स्वामी स्वात्माराम ने योग साधना में सहयोग करने वाले साधक तत्त्वों के भी छः ( 6 ) भेद माने हैं । योगी द्वारा इन साधक तत्त्वों का पालन करने से साधना में सफलता प्राप्त होने में आसानी रहती है । निम्न तत्त्वों को साधना में साधक माना गया है –
साधक तत्त्वों के पालन से साधना में सिद्धि प्राप्त होने में सहायता मिलती है । इसलिए ग्रन्थकार कहते हैं कि साधनाकाल में योगी को इन सभी साधक तत्त्वों का पालन करना चाहिए । इनका पालन करने से साधना में मज़बूती आती है ।
यम व नियम का वर्णन
हठप्रदीपिका में दस प्रकार के यम व दस प्रकार के नियमों का भी वर्णन किया गया है। जिनका वर्णन इस प्रकार है –
दस यमों का वर्णन
दस नियमों का वर्णन
आसन वर्णन
हठप्रदीपिका ने योग के चार अंग माने हैं । जिनमें से आसन को पहले स्थान पर रखा गया है । सर्वप्रथम आसन के लाभों का वर्णन करते हुए पन्द्रह (15) आसनों का वर्णन किया है । जिनके नाम इस प्रकार हैं –
प्रमुख अथवा श्रेष्ठ आसन
आसनों में सिद्धासन, पद्मासन, सिंहासन व भद्रासन को प्रमुख चार आसनों की श्रेणी में रखते हुए, सिद्धासन को सबसे श्रेष्ठ आसन बताया है ।
आहार की महत्ता
हठप्रदीपिका में स्वामी स्वात्माराम ने आहार के महत्त्व को ध्यान में रखते हुए इसका पहले ही अध्याय में वर्णन किया है । इसमें आहार को कई भागों में बाँटा है । जिसका वर्णन इस प्रकार है –
द्वितीय उपदेश ( दूसरा अध्याय )
द्वितीय अध्याय में मुख्य रूप से प्राणायाम व षट्कर्म की चर्चा की गई है । सर्वप्रथम नाड़ीशोधन का वर्णन करते हुए इसे प्राणायाम से पूर्व करने की सलाह दी गई है । पहले नाड़ी शोधन से साधक अपनी नाड़ियों में जमे मल की शुद्धि करे, उसके बाद ही वह बाकी के प्राणयाम करने के योग्य होता है।
षट्कर्म का वर्णन करते हुए स्वामी स्वात्माराम कहते हैं कि जिस साधक के शरीर में चर्बी व कफ ज्यादा बढ़ा हुआ है, उन सभी को प्राणायाम से पूर्व षट्कर्मों का अभ्यास करना चाहिए । जिनके वात, पित्त व कफ आदि दोष सन्तुलित हैं, उन्हें षट्कर्म करने की कोई आवश्यकता नहीं है । आगे षट्कर्म का उपदेश करते हुए कहा है –
घेरण्ड संहिता में षट्कर्म के अन्तर्गत चौथे स्थान पर नौलि क्रिया का वर्णन किया गया है और पाँचवें स्थान पर त्राटक का । लेकिन हठप्रदीपिका में चौथे स्थान पर त्राटक और पाँचवें स्थान पर नौलि क्रिया को रखा गया है ।
कुम्भक ( प्राणायाम ) वर्णन
हठप्रदीपिका में भी घेरंड संहिता की ही तरह आठ प्रकार के कुम्भकों ( प्राणायामों ) की चर्चा की गई है । जिनका वर्णन इस प्रकार है –
तृतीय उपदेश ( तीसरा अध्याय )
तृतीय अध्याय में मुद्राओं का उपदेश दिया गया है । कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने के लिए मुद्राओं के अभ्यास को बहुत उपयोगी माना है । कुल दस (10) मुद्राओं का वर्णन किया गया है –
इन सभी में खेचरी मुद्रा को सबसे श्रेष्ठ मुद्रा माना गया है ।
चतुर्थ उपदेश ( चौथा अध्याय )
चौथे अध्याय में नादानुसंधान की चर्चा की गई है । हठप्रदीपिका में नादानुसंधान को योग का अन्तिम अंग माना गया है । इसकी चार अवस्थाएँ होती हैं –
इन सभी अवस्थाओं में योगी की क्या अवस्था अथवा कैसे लक्षण होते हैं, उनका भी विस्तार से उल्लेख किया गया है । इसी अध्याय में समाधि अथवा योग की विभिन्न परिभाषाओं का भी मुख्य रूप से वर्णन किया गया है, साथ ही समाधि के सोलह (16) पर्यायवाची शब्दों को भी प्रमुखता से बताया गया है । शरीर में स्थित बहत्तर हज़ार (72000) नाड़ियों का वर्णन भी यहीं पर किया गया है। इन सभी नाड़ियों में से सुषुम्ना नाड़ी को प्रमुख मानते हुए अन्य सभी को निरर्थक अर्थात् विशेष उपयोगी नहीं माना है । इसी अध्याय में लययोग के लक्षणों को भी बताया गया है ।
पंचम उपदेश ( पाँचवाँ अध्याय )
हठप्रदीपिका का यह सबसे छोटा अध्याय है । इसका मुख्य विषय यौगिक चिकित्सा है । इस पाँचवें अध्याय में स्वामी स्वात्माराम ने ग़लत विधि से योग क्रिया करने पर उत्पन्न होने वाले रोगों के उपचार का उपदेश किया है । इसमें मुख्य रूप से वात, पित्त व कफ़ का शरीर में स्थान व उनके कार्यों का वर्णन किया गया है । इसके बाद वात, पित्त व कफ़ से होने वाले रोगों की संख्या को बताते हुए कहा है कि वात के असंतुलित होने पर अस्सी ( 80 ) प्रकार के, पित्त के असंतुलित होने से चालीस ( 40 ) प्रकार के व कफ़ के असंतुलित होने से बीस ( 20 ) प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं । आगे के श्लोकों में उन सभी दोषों को शान्त करने के उपायों व रोगों की यौगिक चिकित्सा का वर्णन किया गया है ।
Reena Jain is a professional Advocate and Yoga Blogger. She has graduation in Music and Yoga. She earned professional degrees in LLB and LLM. She has authored 2 books in Yoga.
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