प्राण ऊर्जा, तेज, शक्ति है। प्राण समस्त जीवन का आधार और सार है; यह वह ऊर्जा और तेज है, जो सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त है। प्राण उस प्रत्येक वस्तु में प्रवाहित होता है जिसका अस्तित्व है।
इससे भी अधिक, प्राण भौतिक संसार, चेतना और मन के मध्य सम्पर्क सूत्र है। यही तो भौतिक स्तर पर जीवन को संभव बनाता है। प्राण सभी शारीरिक कार्यों को विनियमित करता है, उदाहरणार्थ श्वास, ऑक्सीजन की आपूर्ति, पाचन, निष्कासन-अपसर्जन और बहुत कुछ। मानव शरीर का कार्य एक ट्रांसफॉर्मर की भांति है, इस ऊर्जा का आवंटन करता है और फिर इसे समाप्त कर देता है। यदि किसी व्यक्ति या कमरे में स्वस्थ, व्यवस्थित स्पंदन है, तो हम कहते हैं “यहां अच्छा प्राण है”। इसके विपरीत रुग्णता, प्राण के प्रवाह में बाधा डालती है या रोकती है। हम ज्यों-ज्यों प्राण को नियन्त्रित करने की योग्यता विकसित करते हैं, हम शरीर और मन दोनों के स्वास्थ्य व समन्वय को प्राप्त कर लेते हैं। इसके साथ ही दीर्घ और अनवरत अभ्यास के साथ चेतना के विस्तार का भी अनुभव होने लगता है। प्राण हमारे सभी संकायो को ऊर्जा देता है । जैसा कि हम अपने योग अभ्यास से जानते हैं कि प्राणायाम का अभ्यास करना लाभकारी है। प्राणायाम पांच कोशो में से ,एक प्राणायाम कोश पर कार्य करता हैं।
प्राणायाम कोश के स्तर पर, पंच प्राण अलग-अलग कार्यो का प्रतिनिधित्व करते हैं।ये पांच कार्य शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक स्तर पर शरीर के कामकाज को प्रभावित करते हैं।
प्राण दस मुख्य कार्यों में विभाजित है :-
- पांच प्राण: प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान।
- पांच उप-प्राण: नाग, कूर्मा, देवदत्त, कृकला और धनन्जय
1. प्राण – इसका स्थान नासिका से हृदय तक है। नेत्र, श्रोत्र, मुख आदि अवयव इसी के सहयोग से कार्य करते है। यह सभी प्राणों का राजा है। जैसे राजा अपने अधिकारियों को विभिन्न स्थानों पर विभिन्न कार्यों के लिए नियुक्त करता है, वैसे ही यह भी अन्य प्राणों को विभिन्न स्थानों पर विभिन्न कार्यों के लिए नियुक्त करता है।
2. अपान – इसका स्थान नाभि से पाँव तक है। यह गुदा इंद्रिय द्वारा मल व वायु तथा मूत्रेन्द्रिय द्वारा मूत्र व वीर्य को तथा योनि द्वारा रज व गर्भ को शरीर से बाहर निकालने का कार्य करता है।
3. समान – इसका स्थान हृदय से नाभि तक है। यह खाए हुए अन्न को पचाने तथा पचे हुए अन्न से रस, रक्त आदि धातुओं को बनाने का कार्य करता है। यह पाचन अंग व जठरअग्नि से जुड़ा हुआ हैं। समान सभी स्तरों पर पाचन में सहायक हैं। यह आक्सीजन को अवशोषित करने के लिए जठराग्नि प्रणाली पर कार्य करता हैं।
4. उदान – यह कण्ठ से मस्तिष्क तक के अवयवों में रहता है। शब्दों का उच्चारण, वमन आदि के अतिरिक्त यह अच्छे कर्म करने वाली जीवात्मा को उत्तम योनि में व बुरे कर्म करने वाली जीवात्मा को बुरे लोक (सूअर, कुत्ते आदि की योनि) में तथा जिस मनुष्य के पाप-पुण्य बराबर हो, उसे मनुष्य लोक(मनुष्य योनि) में ले जाता है।
5. व्यान – यह सम्पूर्ण शरीर में रहता है। समस्त शरीर में रक्त संचार, प्राण-संचार का कार्य यही करता है तथा अन्य प्राणों को उनके कार्यों में सहयोग भी देता है। यह पूरे शरीर में भोजन ,पानी ,आक्सीजन को स्थानांतरित करता है। और हमारे विचारों, भावनाओं को दिमाग में फैलाता हैं। व्यान शरीर के विभिन्न हिस्से में आवेग भेजने का कार्य करता हैं। और सभी गतिविधियों को नियंत्रित करता हैं। मासपेशियों को नियंत्रित व समन्वय करता हैं।
उपप्राण
1. नाग – यह कण्ठ से मुख तक रहता है। डकार, हिचकी आदि कर्म इसी के द्वारा होते है। जब वायु तत्व उत्तेजित होता हैं तो नाग सक्रिय हो जाता हैं। और पेट की हवा को बाहर फेकने की कोशिश करता हैं। जिससे उदान, प्राण,व समान में कम्पन पैदा होता हैं। ध्यान की स्थिति में नाग काम नहीं करता है।
2. कूर्म – इसका स्थान मुख्य रूप से नेत्र गोलक है। यह नेत्र गोलकों में रहता हुआ उन्हें दाएँ-बाएँ, ऊपर-नीचे घुमाने की तथा पलकों को खोलने बंद करने की क्रिया करता है। आँसू भी इसी के सहयोग से निकलते है। आँखे कुर्म ऊर्जा के कारण चमकती हैं। जब कुर्म नियंत्रण में होता हैं तो योगी आँखो को खोलकर योग कर सकता हैं । मोमबत्ती का त्राटक इसका उदाहरण हैं। ध्यान के दोरान यह एकाग्रता बनाने में सहायक हैं।
3. कृकल – यह मुख से हृदय तक के स्थान में रहता है तथा जंभाई, भूख, प्यास आदि को उत्पन्न करने का कार्य करता है। यह श्वसन में सहायता करता हैं। कूकर अभ्यास के साथ नियंत्रित होता हैं। सुस्ती, नींद खत्म हो जाती हैं। भूख, प्यास नियंत्रित रहती हैं।
4. देवदत्त – यह नासिका से कण्ठ तक के स्थान में रहता है। इसका कार्य छींक, आलस्य, तन्द्रा, निद्रा आदि को लाने का है। यह तेज गंध में सक्रिय होता हैं। अपने सूक्ष्म अवस्था में देवदत्त, चिकित्सा को गंध का अनुभव करने हेतु सक्रिय बनाता हैं।
5. धनंजय – यह सम्पूर्ण शरीर में व्यापक है। इसका कार्य शरीर के अवयवों को खींचे रखना, माँसपेशियों को सुंदर बनाना आदि है। चोट के कारण सूजन धनंजय के कारण होती हैं। शरीर को यह मजबूती देता हैं। शरीर में से जीवात्मा के निकल जाने पर यह भी निकल जाता है, फलत: इस प्राण के अभाव में शरीर फूल जाता है। रीना जैन
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